-लगभग 8 कि.मी. का विहार कर शांतिदूत पहुंचे दहींसरा गांव
-आचार्यश्री ने शांतिमय जीवन के लिए बताए सूत्र
19.02.2025दहींसरा,कच्छ।मानवता का शंखनाद करते, जन-जन को सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति की सद्प्रेरणा देने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, महातपस्वी, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी गुजरात राज्य की धरा पर पुनः गतिमान हो चुके हैं। भुज में लगभग सत्रह दिवसीय प्रवास के दौरान अनेकानेक नवीन कीर्तिमान व स्वर्णमयी आलेख से भरे हुए इतिहास का सृजन कर मानवता के मसीहा आचार्यश्री महाश्रमणजी मानव कल्याण के लिए पुनः गतिमान हो चुके हैं।
बुधवार को प्रातःकाल युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी धवल सेना का कुशल नेतृत्व करते हुए नारणपर से मंगल प्रस्थान किया। कच्छ ही यह धरती ऐसे महापुरुष की चरणरज को प्राप्त स्वयं को धन्य महसूस कर रही है। जन-जन पर आशीषवृष्टि करते हुए आचार्यश्री लगभग आठ किलोमीटर का विहार कर दहींसरा में स्थित श्री दहींसरा पंचायत प्राथमिक कन्याशाला में पधारे। जहां उपस्थित लोगों ने आचार्यश्री का भावपूर्ण अभिनंदन किया।
कन्याशाला परिसर में आयोजित मुख्य मंगल प्रवचन में उपस्थित जनता को महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि शास्त्रों में बताया गया है कि दुनिया में हर समय बीस तीर्थंकर मौजूद होते हैं। तीर्थंकरों और बुद्ध के प्रतिष्ठान का मूल शांति है। जिस प्रकार प्राणियों के लिए पृथ्वी आधार होती है, वैसे उनके लिए शांति होती है। उनका आधार/प्रतिष्ठान शांति है। तीर्थंकर और बुद्ध बनने के लिए केवलज्ञानी होना आवश्यक होता है। केवलज्ञान उसी को प्राप्त होता है, जिसका मोहनीय कर्म क्षीण हो जाता है। जिसके मोहनीय कर्म क्षीण हो गया, उसे शांति की प्राप्ति हो जाती है। उसके भीतर में कोई भी ऐसे अशांति पैदा करने वाले तत्त्व रहता ही नहीं है।
सामान्यतया प्रत्येक व्यक्ति को शांति अभिष्ट होती है। गुस्सा, भय, चिंता और लोभ शांति के बाधक तत्त्व हैं। जिस आदमी के मन में भय का भाव होता है तो उसके चेहरे पर भय के भाव को देखा जा सकता है। इसी प्रकार आलस्य अथवा कोई और भी कोई स्थिति होती है तो आदमी के चेहरे पर वह दिखाई देता है। जिस आदमी का दिमाग शांत रहता है तो वह भी उसके चेहरे से झलकती है और यदि वह अशांत हो, क्रोध हो तो उसके चेहरे पर उस तरह के भाव देखने को मिल सकता है। आदमी यदि गुस्से में होता है तो वह भी उसकी शांति में बाधक तत्त्व होता है, भय व्याप्त हो तो वह भी आदमी को अशांत कर सकता है। इसी प्रकार चिंता और लोभ भी आदमी की शांति का हरण कर लेते हैं। चिंता को चिता के समान कहा गया है। जिस प्रकार चिता निर्जीव को जलाती है और चिंता सजीव को जला देती है। जिस आदमी के दिमाग में चिंता होती है, वह आदमी कष्ट में होता है। शांति में बाधक इन तत्त्वों से बचने का प्रयास करना चाहिए। उसके लिए आदमी को चिंता करने की अपेक्षा शांति से सोचकर उसका सामाधान को खोजने का प्रयास करना चाहिए। अच्छा विचार करने से कई बार आदमी को अपनी समस्याओं का समाधान मिल जाता है। इसलिए चिंता नहीं, आदमी को चिंतन करने का प्रयास करना चाहिए। रात्रि में आदमी सोए तो वह सोचकर कोई चिंता न करे, भले उसके समाधान का चिंतन करने का प्रयास करना चाहिए। किसी ने कुछ कह भी दिया तो आदमी को शांति रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को सभी प्राणियों को अभय का दान देने का प्रयास करना चाहिए। चिंता, भय, क्रोध और मोह आदि से बचने और शांति में रहने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को अभय और शांति में रहने का प्रयास करना चाहिए। जो भी प्राप्त हो जाए, उसमें संतोष रखने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके, धर्म, ध्यान, अध्यात्म आदि की साधना करते रहने का प्रयास करना चाहिए। इस प्रकार सौभाग्य से प्राप्त मानव जीवन का जितना संभव हो सके, सदुपयोग करने का प्रयास करना चाहिए और जितना संभव हो सके, शांति में रहने का प्रयास करना चाहिए।
मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री के द्वारा में कन्याशाला की ओर से श्री मनोज भाई ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया। ह्यूस्टन से आए एक श्रद्धालु भी आचार्यश्री को वंदन कर मंगल आशीर्वाद प्राप्त किया।