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गृहस्थ जीवन को भी धर्ममय बनाने का हो प्रयास : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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-लगभग 12 किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री पधारे शिक्रापुर 

 

-सी.एस. भुजबल ग्लोबल स्कूल पूज्यचरणों से हुआ पावन  

 

शनिवार, शिक्रापुर, पुणे।महाराष्ट्र राज्य की राजधानी व भारत के चार प्रमुख महानगरों में एक मुम्बई की व्यस्ततम मार्ग, अनेक विशाल राजमार्गों, पहाड़ी दुर्गम रास्तों, शहरों, गांवों आदि के रास्ते के बाद वर्तमान में युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी जनकल्याण के लिए खेतों के बीच स्थित कच्चे मार्ग को भी अपनी चरणरज से पावन बना रहे हैं। शनिवार को प्रातःकाल की मंगल बेला में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने कोरेगांव भीमा से मंगल प्रस्थान किया। आज का प्रारम्भिक मार्ग खेतों के बीच कच्चे रूप में था। ऐसा लग रहा था मानों इस क्षेत्र की मिट्टी भी ऐसे महामानव के स्पर्श से आह्लादित नजर आ रही थी। खेतों में अनेक प्रकार की फसलें लहलहा रही थीं। कुछ दूरी के उपरान्त आचार्यश्री पुनः पक्के मार्ग पर पधार गए। गर्मी का मौसम में सामने की ओर से आनी सूर्य किरण मानों सबकुछ तप्त कर रही थी, किन्तु शांतिदूत के भीतर व्याप्त शांति की शीला से वह धूप की तीव्रता भी नम बन रही थी। लगभग 12 किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री शिक्रापुर में स्थित सी.एस. भुजबल ग्लोबल स्कूल में पधारे। 

 

स्कूल परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित जनता को शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन के व्यवहार में पवित्रता और विशुद्धता आती है। ईमानदारी, अहिंसा का संकल्प मन में रहता है तो मानना चाहिए कि उसके भीतर कुछ गुणवत्ता का संचार हुआ है। सारे मनुष्य साधु बन जाएं यह तो कठिन बात है। कई-कई मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जो साधुत्व का स्पर्श करते हैं। साधु का वेश पहन लेना एक छोटी बात है, किन्तु साधुत्व के गुणों का स्पर्श कर लेना बड़ी बात होती है। यदि साधु का वेश पहनने से कल्याण होता तो बहुरूपिया भी अपना कल्याण कर ले। 

 

जो साधु नहीं बन सकते हैं, वे गृहस्थ जीवन में रहते हुए सामान्य धर्म के रूप में सुपात्र को दान देने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के भीतर कुछ दान देने का भाव होना चाहिए। सुपात्र साधु को शुद्ध दान देने से धर्म हो जाता है। मित्र को देने से मित्रता और प्रगाढ़ होती है। शत्रु को भी कुछ प्रेम दिया जाए तो संभव हो सकता है कि वैर भाव में कमी आ सकती है। अपने अधिनस्थों को कुछ अतिरिक्त दिया जाए तो आपके प्रति भक्ति की भावना का विकास हो सकता है। राजा आदि को कुछ समर्पित करने से आदमी का सम्मान बढ़ सकता है। धर्मगुरुओं के प्रति विनय का भाव रखने का प्रयास करना चाहिए। सभी प्राणियों के प्रति दया का भावना हो, अनुकंपा की भावना हो। आदमी को नैतिकता, न्याय और नीति के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए। दूसरे का हित हो, इसका ध्यान रखने का प्रयास करना चाहिए। आदमी के व्यवहार में धर्म के भाव जुड़ जाए तो जीवन का कल्याण हो सकता है। राग-द्वेष के भावों से मुक्त रहना आत्मशुद्धि की बात होती है। धर्म, ध्यान, साधना, तपस्या, योग अनुप्रेक्षा आदि के द्वारा आत्मा की निर्मलता की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। 

 

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