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शिष्टाचार, सम्मान व विनय से भावित हो मानव जीवन : मानवता के मसीहा महाश्रमण

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-भगवती सूत्र में वर्णित लोकोपचार विनय आदि विषयों का आचार्यश्री ने किया वर्णन

-युवाचार्य तुलसी के लिए नियम, व्यवस्था अवगत हुए साधु व साध्वी

घोड़बंदर रोड, मुम्बई।  मायानगरी मुम्बई में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, मानवता के समीहा, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्ष 2023 का सवाया चतुर्मास कर रहे हैं। ऐसा सौभाग्य प्राप्त कर मुम्बई का जन-जन आह्लादित है। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में नित नए आयोजन भी हो रहे हैं। जिसमंे भाग लेने के लिए देश से ही नहीं, विदेशों से भी श्रद्धालु पहुंचकर लाभ प्राप्त कर रहे हैं। अपने आराध्य के दर्शन और सेवा के साथ नियमित रूप से मंगलवाणी का लाभ उनके जीवन को भावित कर रहा है। 

गुरुवार को मानवता के मसीहा, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने तीर्थंकर समवसरण के विशाल प्रवचन पण्डाल में उपस्थित श्रद्धालुआंे को भगवती सूत्र के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि भगवती सूत्र में लोकोपचार विनय की बात बताई गई कि अपनों से बड़े, प्रिय और मेहमान के प्रति प्रियता, विनय और सम्मान का भाव रखा जाता है। क्या ऐसा व्यवहार नारकीय जीवों में भी होता है? भगवान महावीर ने कहा नहीं, नारकीय जीवों में ऐसा व्यवहार नहीं होता। ऐसा व्यवहार न स्थावरों में होता है, न ही विकलेन्द्रियों में ही होता है। यह व्यवहार देवों और मनुष्यों में ही होता है। थोड़ा-थोड़ा व्यवहार तीर्यंचों में भी होता है। 

मानव जीवन में परस्पर व्यवहार-सम्मान की बात होती है। अपने से बड़ों के आने पर उचित सम्मान करना, आगे तक पहुंचकर उन्हें आदर सहित ले आना और जाने पर कुछ दूर जाकर उन्हें विदा करने, उनके उचित मान-सम्मान का ध्यान रखने और अनुकूल व्यवहार करने की परंपरा भी है। यह शिष्टाचार भी होता है। अपने से बड़े अर्थात् माता, पिता, गुरु अथवा प्रियजनों के प्रति उचित सम्मान, आदर का भाव होना चाहिए। संत परंपरा में भी परस्पर विनय, प्रणाम, वंदन, सम्मान आदि का क्रम चलता है। जब बड़े संत बाहर से आ रहे होते हैं तो उनके आगे पहुंचकर उनको वंदन करना, उनके बोझ आदि को लेने की परंपरा है। जब विदाई होती है तो उन्हें दूर तक छोड़ने की परंपरा है। मिलने पर एक परस्पर प्रेम, विनय, सम्मान, आदर का भाव होता है। 

उसी प्रकार सामान्य मनुष्यों के जीवन में भी शिष्टाचार व सम्मान की बात होती है। अपने से बड़ों को समुचित सम्मान देने का प्रयास करना चाहिए। बड़ों को मान-सम्मान, वंदन करना, विनय रखना और खमतखामणा करने का भाव भी रखने का प्रयास करना चाहिए। 

आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त गणाधिपति आचार्यश्री तुलसी द्वारा रचित ‘कालूयशोविलास’ के आख्यान क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि जब धर्मसंघ को पूज्य कालूगणी ने मुनि तुलसी के रूप में युवाचार्य प्रदान किया तो युवाचार्य के पद के अनुसार समुचित नियम और व्यवस्थाओं का प्रशिक्षण भी संतों और साध्वियों को दिया गया। उनके उठने, बैठने, आहार-पानी आदि-आदि व्यवस्थाओं के लिए ध्यान आदि प्रसंगों को भी आचार्यश्री ने सरसशैली में व्याख्यायित किया। 

 

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