-महातपस्वी ने मन को नियंत्रित करने को किया अभिप्रेरित
-पूज्य कालूगणी द्वारा मुनि तुलसी को युवाचार्य मनोनीत के प्रसंगों को आचार्यश्री ने किया वर्णन
घोड़बंदर रोड, मुम्बई। प्रवृत्ति के तीन साधन-शरीर, वाणी और मन बताए गए हैं। मन होता है, जिसके माध्यम से आदमी मनन करता है, चिन्तन करता है, विचार करता है। भगवती सूत्र में मन के संदर्भ में पूछा गया है कि मन आत्मा होता है या अन्य? भगवान महावीर ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा कि मन आत्मा नहीं, मन तो अन्य है। जिस प्रकार भाषा आत्मा नहीं होती, उसी प्रकार मन भी आत्मा नहीं होता। वह आत्मा से अन्य। पुनः प्रश्न आया कि मन रूपी होता है या अरूपी? भगवान महावीर ने उत्तर प्रदान करते हुए कहा कि मन रूपी होता है, अरूपी नहीं। पुनः प्रश्न किया गया कि मन अचित्त होता है या सचित्त? पुनः उत्तर प्रदान किया गया कि मन सचित्त नहीं होता, मन अचित्त होता है। पुनः प्रतिप्रश्न किया गया कि मन जीव होता है कि अजीव? भगवान महावीर ने बताया कि गौतम! मन जीवों के होता है, अजीवों के नहीं होता।
मन एक ऐसा तत्त्व है, जिसे रूपी कहा गया है, अचित्त कहा गया है। मन के चार प्रकार बताए गए हैं। मन जीवों में होता है। मन अच्छा भी हो सकता है और मन बुरा भी हो सकता है। मन में अच्छे विचार आते हैं तो बुरे विचार भी आते हैं। मन इतना गतिशील है कि क्षण में कहां से कहां पहुंच सकता है। विचारों का प्रवाह-सा चलता है। आदमी चले या खाए, लेटे या बैठे विचार आते ही आते हैं। कई बार विचारों के अत्यधिक प्रवाह से आदमी की नींद उड़ जाती है। विचारों से आदमी दुःखी और विचारों से आदमी प्रसन्न भी हो सकता है। जिस प्रकार आदमी के जीवन में शरीर बल का महत्त्व है, उसी प्रकार आदमी के जीवन में मनोबल का भी बहुत महत्त्व है। मनोबल कमजोर हो जाए तो आदमी को कठिन कार्य करना मुश्किल हो सकता है। मनोबल मजबूत हो तो आदमी कठिन से कठिन भी कार्य कर सकता है।
मनोबल का मजबूत होना जीवन की अच्छी उपलब्धि होती है। वे आदमी बलवान होता है, जिसमें मनोबल होता है। कठिनाई में भी आदमी को हिम्मत बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। मनोबल न गिरे, इसका प्रयास करना चाहिए। जीवन में आने वाली असफलता से आदमी उदास, हताश होने के बजाय पुनः प्रयास करने से सफलता प्राप्त भी हो सकती है। आदमी को मन का अच्छा उपयोग करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी अपने मन का गुलाम न बने, बल्कि चेतना का मन पर सदैव नियंत्रण हो, ऐसा प्रयास करना चाहिए। मन को नियंत्रित और एकाग्र करने के लिए सामायिक करने का प्रयास करें। शरीर को स्थिर कर ध्यान, स्वाध्याय, जप आदि का प्रयोग हो तो मन की एकाग्रता बढ़ सकती है और मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
उक्त जीवनोपयोगी पावन संदेश जैन श्वेताम्बर तेरापंथ के वर्तमान अनुशास्ता, अखण्ड परिव्राजक, शांतिदूत, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित जनता को प्रदान कीं। अपने आराध्य से मन को नियंत्रित करने और मनोबल को मजबूत बनाने की प्रेरणा प्राप्त कर जनता अभिभूत थी। मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास के माध्यम से भाद्रव शुक्ला तीज को पूज्य कालूगणी द्वारा मुनि तुलसी को अपना युवाचार्य लिखित रूप में घोषित करने के प्रसंगों का सरसशैली में वाचन किया।
*