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जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रमाद नहीं करे:मणिप्रभ सूरीश्वर

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 गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी ने सरलतापूर्वक जीवन जीने का दिया मार्गदर्शन भारत की सहनशीलता, सम्भलने, समझने, जीने की संस्कृति है।

चेन्नई। श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.सा ने उत्तराध्यन सूत्र के चौथे अध्याय की गाथा का विवेचन करते कहा कि जीवन बहुत छोटा है और हमें यहां से विदा होना है। विदा हो कर हम कहां जायेंगे, वह महत्वपूर्ण है। उसके लिए हमारे भीतर में विचार होना जरूरी है। हमारे अन्दर में धर्म का होना जरूरी है। जीवन में मौत न होती तो धर्म की भी अपेक्षा नहीं रहती। लेकिन जाना है, आगे मेरा क्या होगा? मेरी चेतना का क्या होगा? वो चिन्तन इस जन्म में और छोटे से समय में ही करना है।

 हिन्दी भाषा में तलाक शब्द का नहीं समावेश
विशेष प्रतिबोध देते हुए गुरु भगवंत ने कहा कि भारत की संस्कृति में, हिन्दी भाषा में तलाक शब्द नहीं है। यह अन्य भाषा, संस्कृति का शब्द है। यह दो शब्दों का मिश्रण है सम्बंध+विच्छेद। यहा के लोग निभाना जानते है, सहन करना जानते है, समझना जानते है, सम्भलना जानते है। भारत की संस्कृति है- जो सहनशीलता की संस्कृति है, सम्भलने की, समझने की, जीने की संस्कृति है।

 समय की मूल्यवत्ता को पहचाने
गुरुवर ने कहा कि आगे के सम्यग् चिन्तन के लिए हमें समय की मूल्यवत्ता को पहचाना होगा। हम जीवन में हर पदार्थ का मूल्य जानने की श्रेष्ठा करते हैं, जानते भी हैं। जिस वस्तु का जितना मूल्य है, उतना हम देते भी हैं। कोई भी व्यक्ति सोने के सिक्कों को खिड़की में नहीं रखता और लोहे के सिक्के को तिजोरी में नहीं रखता। व्यक्ति सुक्ष्म दृष्टि से जानकर, अवलोकन कर पदार्थ का मूल्य एवं स्थान तय करता है। जैसे दीपक एकासने में एक सैकेण्ड का भी महत्व होता है, उसी तरह हम भी समय की किमत को समझे और उसी अनुसार अपने जीवन को, अपनी दृष्टि को परिमार्जित करते रहे। 

 जीवन की पूर्णता के लिए पुरुषार्थ करें
गच्छाधिपति ने कहा कि जीवन को रबर की भांती छोटा या बड़ा नहीं किया जा सकता। घटाया, बढ़ाया नहीं जा सकता। अतः जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रमाद नहीं करे। श्रम जरूरी है, विश्राम भी जरूरी है। परन्तु श्रम और विश्राम के बीच में प्रमाद नहीं आना चाहिए। प्रमाद का अर्थ है हम जहां होते है वहां नहीं होना। बैठे है परमात्मा के सामने और मन का दुकान, मकान या दूसरी जगह होना/ प्रवचन सुन रहे है, स्वाध्याय कर रहे है फिर भी संसार की गतिविधियों का मन में स्मरण करना, यह प्रमाद है। जीवन की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए प्रमाद नहीं पुरुषार्थ करो। 

 सरलता पूर्ण हो हमारा जीवन
आचार्य प्रवर ने आज भी फरमाया कि बांसुरी के पांचों गुणों को जीवन में आत्मसात कर ले, जीवन व्यवहार में उतार ले। मैं हूँ तो यह चलता है, इस तरह की भाषा का उपयोग नहीं करे, श्रेय लेने के विचार नहीं रखने चाहिए। मैरे कारण सब चलता है, यह अहंकार, इगो के भाव नहीं, अपितु सरलता के भाव मन में होने चाहिए। सरलता से हमारे जीवन में परिवर्तन आ जाता है। जीवन में, संसार के क्षेत्र में, धर्म के क्षेत्र में जितनी भी अशांति है, वह हमारे अहंकार, इगो के कारण होती है।
समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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