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प्राप्त लब्धियों को पुष्ट बनाने का हो प्रयास : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

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-दस लब्धियों को आचार्यश्री ने भगवती सूत्र के माध्यम से किया व्याख्यायित 

-गुरुमुख से कालूयशोविलास का आख्यान प्राप्त कर निहाल हो रहे श्रद्धालु

 मीरा रोड।आगम के माध्यम से नित्य प्रति नवीन ज्ञान को जन-जन में बांटने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी के पावस प्रवास से नंदनवन गुलजार हो गया है। मायानगरी के वासी इस सुअवसर का मानों पूर्ण लाभ प्राप्त कर रहे हैं। सूर्योदय से पूर्व अपने आराध्य की मंगल सन्निधि में उपस्थित होना, प्रातःकाल के बृहद् मंगलपाठ का लाभ प्राप्त करना, साधु-संतों के दर्शन-सेवा करना और गोचरी आदि की प्रक्रिया से जुड़कर पुण्यार्जन कर रहे हैं। 

शनिवार को तीर्थंकर समवसरण से तीर्थंकर के प्रतिनिधि, अणुव्रत यात्रा के प्रणेता महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को भगवती सूत्र आगमाधारित पावन प्रवचन के माध्यम से प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि भगवती सूत्र में दस प्रकार की लब्धियां बताई गई हैं- ज्ञान लब्धि, दर्शन लब्धि, चारित्र लब्धि, चरित्राचरित्र लब्धि, दान लब्धि, लाभ लब्धि, भोग लब्धि, उपभोग लब्धि, वीर्य लब्धि और इन्द्रिय लब्धि। यहां जो लब्धि की बात बताई गई है। ये दसों लब्धियां आत्मा की निर्मलता से जुड़ी हुई हैं। से सभी लब्धियां चार घाती कर्मों के क्षय से प्राप्त होने वाली आत्मा की लब्धियां हैं। इनमें भौतिकता नहीं है। आत्म निर्मलता की स्थिति में विशेषतया उजागर होती हैं। 

पहली लब्धि ज्ञान लब्धि है। यह लब्धि सभी में समान नहीं भी होती है। मनुष्यों में देखें तो कइयों में ज्ञान लब्धि प्रखर होती है तो कइयों में मंद होती है। अवबोध, बोध की क्षमता, स्मरण शक्ति तीव्र होती है तो कइयों को कुछ याद नहीं रहता। कोई एक ही दिन में बहुत ज्यादा ज्ञान प्राप्त कर लेता है और कोई बहुत रटने के बाद भी उतना याद नहीं कर पाता। कई में ज्ञान के साथ-साथ समझाने की कला भी है। तत्त्व, सिद्धांत और व्यवहार को वह दूसरों के गले उतार देते हैं। बौद्धिकता की अवज्ञा करने वाले की मानों बुद्धि उससे दूर हो सकती है। आदमी को ज्ञान और बुद्धि का सम्मान करने का प्रयास करना चाहिए। दूसरी लब्धि है- दर्शन लब्धि। जिसका सम्यक्त्व पुष्ट हो उसकी भी लब्धि पुष्ट और कोई मिथ्यात्व दृष्टि वाला है तो उसमें भी कम मात्रा लब्धि होती है। तीसरी लब्धि चारित्र लब्धि है। यह लब्धि केवल साधुओं में होती है। चौथी लब्धि होती है- चरित्राचरित्र लब्धि। यह लब्धि केवल श्रावकों में होती है। श्रावक बनना भी बड़ी बात होती है। किसी आदमी को कोई पद प्राप्त हो जाए, उसका वह पद कभी रहे अथवा न रहे, किन्तु उसकी श्रावक की लब्धि तो उसके साथ जीवन भर बनी रह सकती है। श्रावकत्व अच्छा हो। कई-कई श्रावक तो चारित्रात्माओं के लिए मां-बाप की भांति होते हैं। उनके संयम की साधना में सहायता प्रदान करने और उनका ध्यान रखने वाले और कभी समझाने वाले भी होते हैं। 

पांचवी लब्धि दान लब्धि होती है। आदमी में दान की लब्धि होती है तो वह दान कर सकता है, दूसरों का सहयोग कर सकता है। छठवीं लब्धि लाभ लब्धि होती है। कोई आदमी व्यापार में अच्छा लाभ प्राप्त कर लेता है तो कोई-कोई हानि भी उठा लेते हैं। कई बार साधुओं में भी होता है कि कोई गोचरी के निकला तो उसकी झोली में कुछ न आए और कोई-कोई साधु अपनी झोली भर कर आ जाते हैं। सातवीं लब्धि भोग लब्धि होती है। कई बार कोई वस्तु आदमी के पास होते हुए भी आदमी उसका भोग नहीं कर पाता। सामने आहार होने पर भी किसी कारण से उसे ग्रहण नहीं कर पाता। आठवीं लब्धि उपभोग लब्धि होती है। जो प्राप्त है, उसका भोग भी लब्धि होती है। नवीं लब्धि वीर्य लब्धि होती है। शारीरिक क्षमता व बल का होना भी जीवन में आवश्यक होता है। दसवीं लब्धि इन्द्रिय की लब्धि होती है। कितने-कितने जीव ऐसे हैं, जो केवल एक इन्द्रिय वाले होते हैं। कितने जीव दो, कितने तीन और कितने चार इन्द्रिय वाले भी होते हैं। मनुष्य पंचेन्द्रिय प्राणी है। मनुष्यों में भी कितनों को पूर्ण इन्द्रिय शक्ति नहीं भी प्राप्त हो सकती है, किन्तु जिसकी सभी इन्द्रियां पुष्ट है, वह विशेष लब्धि की बात होती है। आदमी को अपनी लब्धियों को पुष्ट बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। 

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का सरसशैली में वाचन किया। जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित मुनि हेमराजजी की आत्मकथा ‘गुरुकृपा’ को जैन विश्व भारती व चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के पदाधिकारियों आदि ने आचार्यश्री के समक्ष लोकार्पित की तो आचार्यश्री ने पावन आशीर्वाद प्रदान किया। साध्वीवर्याजी ने उपस्थित जनता को उद्बोधित किया। आचार्यश्री से मुनि गौरवकुमारजी ने 16, मुनि अनुशासनकुमारजी ने 15 व मुनि जयेशकुमारजी ने 15 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। आचार्यश्री ने तपस्वी मुनियों को पावन आशीर्वाद प्रदान किया। साथ ही आचार्यश्री ने इक्कीस रंगी तपस्या तथा अन्य तपस्या से जुड़े तपस्वियों को उनकी तपस्या का प्रत्याख्यान कराया। 

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