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काम-भोगों से शाश्वत सुख की प्राप्ति संभव नहीं : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

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-आचार्यश्री ने काम-भोगों से विरक्ति और अनासक्त रहने की दी पावन प्रेरणा* 

- गुरुदेव ने प्रदान की नवदीक्षित साध्वियों को बड़ी दीक्षा 

-जैन संस्कारकों को शांतिदूत से प्राप्त हुआ पावन पाथेय

सूरत।जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में नित नवीन आयोजनों के क्रम भी जारी है। गुरुवार को मुख्य प्रवचन कार्यक्रम के दौरान आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आचार्यश्री ने सात दिवस पूर्व नवदीक्षित साध्वियों को जहां बड़ी दीक्षा (छेदोपस्थापनीय चारित्र) प्रदान कर उन्हें कृतार्थ किया तो दूसरी ओ दो दिवसीय जैन संस्कारक राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतिम दिन संस्कारकों को आचार्यश्री से पावन पाथेय रूपी मंगल आशीष भी प्राप्त हुआ। 

गुरुवार को महावीर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालुओं को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आयारो आगम में कहा गया है कि दुनिया में जितने भी पदार्थ हैं, उन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- काम और भोग। शब्द और रूप को काम बताया गया है और गंध, रस और स्पर्श भोग हैं। इसी प्रकार श्रोत्र और चक्षु इन्द्रियों को कामी और घ्राण, रस और स्पर्श इन्द्रिय को भोगी कहा गया है। इस प्रकार पांच इन्द्रियों को भी दो भागों में बांटते हुए आंख और कान को कामी इन्द्रिय तथा नाक, जिह्वा व त्वचा को भोगी इन्द्रिय कहा गया है। आयारो में कहा गया है कि ये काम और भोग मानव को तृप्ति प्रदान करने में सक्षम नहीं हैं। मानव अतृप्त ही रह सकता है। कोई आदमी अच्छी भाषा अथवा अच्छे गाने सुन लिए तो अधिक सुनने की भावना जग जाती है। इस प्रकार इन्द्रियों के सुख भोगने पर भी कामना बढ़ती जाती है अर्थात् ये इन्द्रियां शाश्वत सुख प्रदान करने वाली नहीं हो सकती हैं, बल्कि दुःख का कारण बन सकती हैं। आज जो खा लिया और कल वह न मिले तो आदमी को दुःख हो सकता है। इन्द्रियों से प्राप्त सुख क्षणिक होता है, शाश्वत सुख नहीं दे सकते है। 

आदमी अपने जीवन में यह विचार करे कि जीवन चलना है तो इन पदार्थों का उपयोग करना है, किन्तु ये पदार्थ मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है, मानव जीवन का लक्ष्य तो परम सुख प्राप्त करना है, जो इन्द्रियातीत है। अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही परम सुख की प्राप्ति होती है। आदमी वर्तमान जीवन में सुख की अनुभूति कर सकता है। मानव को बहुत ज्यादा पदार्थों की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। जीवन चलाने के लिए किसी चीज का उपयोग कर लिया तो ठीक अन्यथा अनावश्यक रूप में बहुत अधिक अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। 

साधु के लिए तो कहा गया कि उसे आहार-पानी प्राप्त हो जाए तो भी ठीक है और न भी मिले तो भी उसके लिए ठीक है। आहार-पानी मिल गया तो शरीर का पोषण हो जाएगा और नहीं मिलेगा तो तपस्या आदि के माध्यम से आत्मा को पोषण प्राप्त हो जाएगा। जिस प्रकार अपने यहां काम करने वाले को वेतन देते हैं, उसी प्रकार इस शरीर से काम लेना है तो इसे भी भोजन और सेवा के रूप में वेतन देना होता है। इस प्रकार आदमी को यह ध्यान देना चाहिए कि पदार्थ पूर्ण सुख नहीं दे सकते तो आदमी को इनमें बहुत ज्यादा आसक्त नहीं होने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो सके आदमी को पदार्थों के प्रति अनासक्ति और पदार्थों का संयम करने का प्रयास करना चाहिए। शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए काम-भोगों से विरक्ति और उपयोग करते हुए अनासक्ति का अभ्यास करना श्रेयस्कर है। 

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने सात दिन पूर्व दीक्षित हुई दो साध्वियों को बड़ी दीक्षा (छेदोपस्थापनीय चारित्र) प्रदान किया। आर्षवाणी का उच्चारण करते हुए आचार्यश्री ने नवदीक्षित साध्वियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र में स्थापित करते हुए पावन आशीर्वाद प्रदान किया। नवदीक्षित साध्वियों ने आचार्यश्री को सविधि वंदन किया। 

आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के तत्त्वावधान में आयोजित द्विदिवसीय जैन संस्कारक राष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन मंचीय उपक्रम रहा। इस संदर्भ में अखिल भारतीय तेरापंथ युवक परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री रमेश डागा तथा मुख्य प्रशिक्षक श्री डालमचंन्द नौलखा ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। तदुपरान्त जैन संस्कारकों ने गीत को प्रस्तुति दी। इस संदर्भ में आचार्यश्री ने जैन संस्कारकों को पावन पाथेय प्रदान किया।  

 

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