-बीड़ को पावन बना गतिमान हुए ज्योतिचरण, श्रद्धालुओं पर की आशीषवृष्टि
-धूप में लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर पेडगांव पधारे आचार्यश्री
रविवार,पेडगांव।बीड में दो दिवसीय प्रवास के उपरान्त रविवार को जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बीड़ से मंगल प्रस्थान किया। आचार्यश्री श्रद्धालुओं के निवेदन को स्वीकार बीड के तेरापंथ भवन में पधारे। वहां श्रद्धालुओं को दर्शन व आशीष प्रदान करने के उपरान्त स्थानीय जैन मंदिर मंे भी पधारे। इस प्रकार बीडवासियों पर कृपा बरसाते हुए आचार्यश्री अगले गंतव्य की ओर प्रस्थित हुए बीड प्रवास के उपरान्त आचार्यश्री अब औरंगाबाद की ओर गतिमान थे। जन-जन को आशीष प्रदान करते हुए आचार्यश्री जैसे-जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे, सूर्य का आतप भी बढ़ता जा रहा था। इस प्राकृतिक प्रतिकूलता के उपरान्त भी आचार्यश्री निरंतर गतिमान थे। लगभग ग्यारह किलोमीटर का विहार कर शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी पेडगांव में स्थित हनुमान मंदिर परिसर में पधारे।
मंदिर परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन में उपस्थित जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन आशीष प्रदान करते हुए कहा कि कषाय शब्द जैन वाङ्मय में प्राप्त होता है। इनके द्वारा कर्म मल आत्मा को मलिन बनाते हैं। कषाय को राग-द्वेष के माध्यम से समझा जा सकता है और चार शब्दों में समझने के लिए क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में भी समझा जाता है। सभी कषायों में सबसे अंत में समाप्त होने वाला लोभ होता है। शेष तीनों के नष्ट हो जाने के बाद भी लोभ रहता है। लोभ एक वृत्ति है। इसके कारण आदमी आपराधिक प्रवृत्ति में संलग्न हो सकता है।
लोभ को पाप का बाप कहा गया है। बहुत सारे पाप के कारण ही होते हैं। लोभ अति मात्रा में हो जाए तो मानव को दुःख प्रदान करने वाला भी बन सकता है। आदमी को अति लोभ से बचने का प्रयास करना चाहिए। साधु ही गृहस्थ को भी अति लोभ से बचने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को ज्यों-ज्यों लाभ होता है, वैसे-वैसे आदमी का लोभ बढ़ता जाता है। इसलिए कहा गया कि जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभी बढ़ता जाता है। जितना संभव हो सके आदमी को लोभ से बचने का प्रयास करना चाहिए। इसके कारण आदमी की अध्यात्म चेतना दब जाती है।
अध्यात्म की चेतना का विकास होता है तो लोभ की चेतना क्षीण हो सकती है। लोभ को कम करने के लिए आदमी को अलोभ की साधना करने का प्रयास करना चाहिए। संतोष की चेतना पुष्ट हो तो लोभ की चेतना दुर्बल बन सकती है। आदमी के भीतर जब संतोष रूपी धन आता है, तब सारे धन धूल के समान हो जाते हैं। गृहस्थ जीवन में धन की आवश्यकता भी होती है, किन्तु धन की अधिक लालसा, कामना आदि जितनी ज्यादा तीव्र होती है, आदमी लोभ के जाल में फंसता चला जाता है। इसलिए आदमी को लोभ को संतोष से कम करने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को लोभ को अलोभ और असंतोष को संतोष से नष्ट करने का प्रयास करना चाहिए।