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जीवन में भगवती अहिंसा की करें आराधना : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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-अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के दूसरे दिन आचार्यश्री ने जन-जन को दी अहिंसा की विशेष प्रेरणा 

-आरम्भजा,प्रतिरक्षात्मिकी और संकल्पजा हिंसा को आचार्यश्री ने किया व्याख्यायित 

घोड़बंदर रोड, मुम्बई।महाराष्ट्र की राजधानी मुम्बई, भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई वर्तमान में आध्यात्मिकता से भी भावित बन रही है। मानों यह महानगरी आर्थिक उन्नति के साथ वर्तमान मंे धार्मिक-आध्यात्मिक उन्नति भी कर रही है। हो भी क्यों न जब मुम्बई महानगर में जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता विराजमान हैं और जन-जन को मानवीय मूल्यों, आध्यात्मिक मूल्यों की पावन प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। ऐसे में हजारों की संख्या में श्रद्धालु नियमित रूप से अपने आराध्य की सन्निधि पहुंचकर इस सुअवसर का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। 

नन्दनवन परिसर में एक अक्टूबर से आरम्भ हुए अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के दूसरे दिन को अहिंसा दिवस के रूप में समायोजित किया गया। मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित जनता को अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन संबोध प्रदान करते हुए कहा कि आज अणुव्रत उद्बोधन सप्ताह के दूसरे दिन अहिंसा दिवस का समायोजन हो रहा है। इसके साथ ही 2 अक्टूबर का दिन महात्मा गांधी के जन्मदिवस के रूप में भी अहिंसा दिवस है। अहिंसा एक व्यापक व प्रतिष्ठित तत्त्व है। दुनिया में ऐसा कौन-सा धर्म होगा,जो अहिंण को अस्वीकार्य करता हो। अहिंसा सर्व व्यापक है। सामान्य सदाचार की दृष्टि से भी अहिंसा एक अनिवार्य तत्त्व है। 

भगवती अहिंसा सभी जीवों के लिए क्षेमंकरी व कल्याणकारी होती है। अहिंसा के कई स्तर होते हैं। एक साधु के लिए सर्वोच्च अहिंसा की बात बताई गई है। एक सामान्य गृहस्थ के लिए सामान्य स्तर की अहिंसा की बात बताई गई है। साधु जितनी सर्वोच्च अहिंसा का पालन गृहस्थ के लिए कठिन हो सकता है। अहिंसा का महाव्रत भी और अहिंसा को अणुव्रत के रूप में भी देखा जा सकता है। साधु तो अपने जीवन में अहिंसा का पालन स्वयं कुछ कष्ट उठाकर भी पाले तो बहुत अच्छी बात होती है। जो साधु तन, मन और वचन से भी किसी भी प्राणी मात्र को दुःख नहीं देता, उसके दर्शन मात्र से पाप झड़ जाते हैं और आत्मा पवित्र हो जाती है। 

हिंसा के तीन मार्ग बताए गए हैं- आरम्भजा, प्रतिरक्षात्मिकी और संकल्पजा। गृहस्थ अपने जीवन को चलाने के लिए आग का उपयोग करता है। धन-धान्य का उपार्जन करता है। सब्जी, फल, अनाज आदि का प्रयोग करता है। इसमें भी जीव हिंसा होती है, जिसे आरम्भजा हिंसा कहा जाता है। यह गृहस्थ के लिए अनिवार्य कोटि की हिंसा होती है। इसका एक गृहस्थ जीवन पर विशेष प्रभाव नहीं होता। यह हिंसा अनिवार्य कोटि की हिंसा होती है। 

स्वयं की रक्षा, परिवार, समाज व राष्ट्र व राष्ट्र के नागरिकों की रक्षा के लिए भी की जाने वाली हिंसा प्रतिरक्षात्मिकी हिंसा की श्रेणी में आता है। सेना के जवान, प्रशासन अथवा न्यायाधीश आदि कभी किसी अपराधी को सजा देते हैं तो वह भी प्रतिरक्षात्मिकी हिंसा के अंतर्गत आता है। तीसरी हिंसा होती है-संकल्पजा। संकल्पजा हिंसा सभी के लिए त्याज्य है। मन में आए आक्रोश, द्वेष और लोभ की भावना से की जाने वाली हिंसा त्याज्य है। आदमी को निरपराध की हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए। 

आचार्यश्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के द्वारा लोगों यही संदेश दिया कि जितना संभव हो सके, आदमी को अपने जीवन हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए। अहिंसा की चेतना आदमी के भाव और व्यवहार में भी रहे। इससे आदमी की चेतना हिंसा रूपी पाप से बच सकती है। नॉनवेज के आसेवन से बचने का प्रयास हो।इस प्रकार आदमी अपने जीवन में भगवती अहिंसा की आराधना करे, यह काम्य है। 

आचार्यश्री ने इस संदर्भ में एक गीत का भी संगान किया। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त अणुव्रत समिति-मुम्बई के पूर्व उपाध्यक्ष प्रो.भूपनाथ पाण्डेय ने अपनी आस्थासिक्त अभिव्यक्ति दी और आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।  

 

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