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धर्मस्थान से कर्मस्थान पर आए धर्म – युगप्रधान आचार्य महाश्रमण

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– शांतिदूत ने किया वास्तविक मित्रता को व्याख्यायित

– भरूच पदार्पण पर अणुव्रत अनुशास्ता का भव्य स्वागत

 भरूच।अपनी ज्ञान रश्मियों के आलोक से मानस के अज्ञान तिमिर को हरने वाले अध्यात्म जगत के महासुर्य अणुव्रत यात्रा प्रणेता आचार्य श्री महाश्रमण जी का आज भरूच पदार्पण पर भव्य स्वागत हुआ। आचार्य बनने के पश्चात गुरुदेव के  प्रथम बार पदार्पण पर मानों भरूच नगर का कण–कण स्वागत, उल्लास की उर्मियों से भर गया हो। प्रातः लुवारा स्थित गुरुद्वारा परिसर से गुरुदेव प्रस्थित हुए। पूज्य चरणों की प्रवर्धमानता के साथ साथ ही स्वागतोत्सुक श्रद्धालु संख्या भी वृद्धि कर रही थी। मार्ग में एक स्थान पर झुग्गी बस्तीवासियों को आचार्य श्री ने नशामुक्ति की प्रेरणा के साथ संकल्प स्वीकार करवाएं। मार्ग में स्थानकवासी संप्रदाय से धर्मदास गण के प्रवर्तक जितेन्द्र मुनि जी मसा. आदि ठाणा–5 से आध्यात्मिक मिलन हुआ। उन्होंने गुरुदेव की सुखपृच्छा करते हुए यात्रा के प्रति मंगलकामना प्रकट की। भरूच प्रवेश के साथ जनसमुदाय जुलूस रूप में आपके आराध्य का स्वागत कर रहा था। लगभग 13 किमी विहार कर पुज्यप्रवर का श्री थानमाल जी मालू के निवास पर प्रवास हेतु पदार्पण हुआ। 

धर्मसभा में उद्बोधन प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने कहा– हमारी दुनियां में मित्र भी होते है व शत्रु भी होते हैं। यह सब व्यवहार जगत के मित्र है। वास्तविकता में हमारी अपनी आत्मा ही हमारी मित्र होती है व आत्मा ही हमारी शत्रु भी होती है। दुष्प्रवृति में संलग्न आत्मा स्वयं की शत्रु व सद्प्रवृति में आत्मा अपनी मित्र होती है। व्यवहार जगत में मित्रता के लक्षण बताते हुए कहा गया कि मित्र जो होते हैं वे आपस में एक दूसरे का सहयोग करते है, अपेक्षानुसार वस्तु का भी लेन देन करते हैं व अपने मन की बात को पूछते व बताते भी है व सुख दुःख में भी काम आते है। किन्तु आत्मा के लिए अहिंसा, संयम, ईमानदारी, निरभिमानता, संतोष व शांति का भाव मित्रता का काम करता है। हिंसा, असंयम, बेईमानी, अहंकार, लोभ व गुस्से से युक्त आत्मा शत्रुता का कार्य करती है। 

गुरुदेव ने आगे कहा कि मित्र व पारिवारिक जन एक दूसरे को सहयोग तो दे सकते हैं, पर कोई किसी की वेदना नही बंटा सकता व उसमें भागीदार नहीं बन सकता। अपने कर्मों का फल खुद को ही भोगना पड़ता है। इसलिए व्यक्ति सद्कर्मों द्वारा स्वयं की आत्मा को अपना मित्र बनाले जो सदा साथ देती रहेगी। धर्म सिर्फ धर्मस्थान तक ही सीमित न रहे बल्कि कर्म स्थान में भी हमारे साथ रहे। व्यापार में ईमानदारी रहे, घर में शान्ति रहे, कलह का वातावरण ना हो। जब व्यवहार में धर्म आजाता है तो धर्म की भी सार्थकता हो सकती है।

कार्यक्रम में साध्वीप्रमुखा श्री विश्रुतविभा जी ने सारगर्भित वक्तव्य दिया। स्वागत के क्रम में स्थानीय प्रवास समिति संयोजक श्री थानमाल मालू, तेरापंथ सभा के मंत्री श्री अरविंद जैन, श्री कन्हैयालाल पटावरी, श्री सुनिलभाई झवेरी आदि ने अपने विचारों की प्रस्तुति दी। तेरापंथ महिला मंडल, किशोर मंडल, ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने स्वागत में प्रस्तुति दी। 

आज के दिन नेपाली नववर्ष का शुभारंभ प्रसंग होने पर परमपूज्य आचार्यश्री ने नेपालवासियों के लिए वृहद मंगलपाठ का भी श्रवण करवाया एवं शुभाशीष प्रदान किया।

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