-दो बार महावीर समवसरण में विराज युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण ने जनता को दी मंगल देशना
-भगवान महावीर की अध्यात्म को सुसम्पन्न कर आचार्यश्री ने तेरापंथ के पूर्वाचार्यों का किया वर्णन
-साध्वीप्रमुखाजी,मुख्यमुनिश्री,साध्वीवर्याजी सहित अनेक चारित्रात्माओं ने विभिन्न विषयों पर दी प्रस्तुति
सुरत।पर्वाधिराज पर्युषण का शिखर दिवस भगवती संवत्सरी। जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, अहिंसा यात्रा प्रणेता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी का चातुर्मास स्थल संयम विहार। श्रद्धालुओं की विराट उपस्थिति से जनाकीर्ण। भगवती संवत्सरी का पूर्ण लाभ उठाने को सूर्योदय से पूर्व तथा पर्युषण के प्रारम्भ से उपस्थित श्रद्धालुओं से पूरा परिसर आध्यात्मिक नगरी की भांति प्रतीत हो रहा था। आधुनिक और भौतिकता के इस दौरान में आध्यात्मिकता की दिशा में आगे बढ़ने की ऐसी भावना मानों अध्यात्म जगत के देदीप्यमान महासूर्य महाश्रमण की मंगल सन्निधि के प्रभाव को दर्शा रहा था।
वैसे तो देश भर में भगवती संवत्सरी का आध्यात्मिक महापर्व मनाया जा रहा होगा, किन्तु ऐसा नयनाभिराम दृश्य कहीं अन्यत्र देखने को शायद ही मिले। रविवार को सूर्योदय के पूर्व से ही पर्वाधिराज के शिखर भगवती संवत्सरी के लिए बाल से लेकर वृद्ध तक उत्साहित नजर आ रहे थे। महावीर समवसरण में प्रातः सात बजे ही आध्यात्मिक कार्यक्रम का शुभारम्भ हो गया था।
प्रातः दस बजे तेरापंथ धर्मसंघ के देदीप्यमान महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी जब महावीर समवसरण के मध्य उदित हुए तो जनाकीर्ण प्रवचन पण्डाल ही नहीं, पूरा वातावरण जयघोष से गुंजायमान हो उठा। भगवती संवत्सरी के कार्यक्रम का शुभारम्भ तेरापंथाधिशास्ता के महामंत्रोच्चार के साथ हुआ। साध्वीवर्या साध्वी सम्बुद्धयशाजी ने ‘आत्मा की पोथी पढ़ने..’ गीत का संगान किया।
भगवती संवत्सरी के अवसर पर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता ने सम्पूर्ण तेरापंथ धर्मसंघ को पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि धर्म को उत्कृष्ट मंगल बताया गया है। धर्म की आराधना का क्रम भी दुनिया में चलता है। ऐसा कोई ऐसा समय नहीं होता, जब पूरी दृष्टि में कहीं न कहीं धर्म की आराधना नहीं होती। धर्म की आराधना साधु भी करते हैं और गृहस्थ भी करते हैं। कुछ-कुछ समय विशेष साधना के लिए भी होते हैं। जैन शासन के श्वेताम्बर परंपरा में पर्युषण महापर्व के अंतर्गत भगवती संवत्सरी का दिन विशेष धर्माराधना का दिन होता है।
आज चारित्रात्माओं के लिए चौविहार उपवास का दिन होता है। हमारी धार्मिक परंपरा में भगवती संवत्सरी से बढ़कर कोई दिन नहीं होता। धर्म की आराधना का यह उत्कृष्ट दिन होता है। यह क्षमा का पर्व है, मैत्री से जुड़ा हुआ है। पिछली सारी कटुताओं को धो डालने का अवसर होता है। और भी अपने पाप-दोषों को प्रतिक्रमण के दिन शुद्धि का प्रयास किया जाता है। आज सायंकालीन होने वाले प्रतिक्रमण में चालीस लोगस्स का ध्यान करणीय होता है। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में गीत का आंशिक संगान भी किया।
भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ को भी शिखर पर पहुंचाते हुए अंतिम भव में त्रिशला के गर्भ से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को एक पुत्र को जन्म दिया। जन्मोत्सव मनाया गया। जन्म के बारहवें दिन नामकरण के लिए स्वजन एकत्रित हुए। पिता सिद्धार्थ बोले कि जब से बालक गर्भस्थ हुआ तब से हमारे राज्य में सभी प्रकार की वर्धमानता हो रही है तो मेरे इस बालक का नाम वर्धमान होना चाहिए। वर्धमान अब समय के साथ शारीरिक रूप से भी प्रवर्धमान होने लगे। उनमें बचपन से ही निर्भीकता थी। उन्हें पढ़ने के लिए गुरुकुल में भेजा गया, लेकिन वे शीघ्र ही गुरुकुल से वापस लौट आए। थोड़ी उम्र आने पर उनके माता-पिता ने उनकी शादी करा दी। बसंतपुर के राजा की पुत्री यशोदा के साथ वर्धमान का पाणीग्रहण (विवाह) हुआ। फिर उन्हें एक पुत्री भी हुई।
माता-पिता के देहावसान और भाई साहब की बात को मान लेने के बाद साधुपन स्वीकार किया और दीक्षा ग्रहण कर साधना के पथ पर आगे बढ़े। दीक्षा के पहले दिन ही परिषह का क्रम प्रारम्भ हुआ, जिसे इन्द्र द्वारा दूर किया गया और आगे सेवा में रहने का निवेदन किया गया, लेकिन उन्होंने उसे अस्वीकार्य कर दिया। अब भगवान महावीर आगे बढ़े। आगे चण्डकौशिक सर्प की भी स्थिति आई। उसका भी उद्धार किया। आचार्यश्री ने बीच में छह प्रहरी पौषध का प्रत्याख्यान कराया।
तदुपरान्त आचार्यश्री ने पुनः ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ के क्रम को आगे बढ़ाते हुए कहा कि भगवान महावीर आगे बढ़े और शूलपाणी यक्ष के स्थान में रुके जहां उसने भी परिषह दिया, लेकिन भगवान महावीर को डिगा नहीं पाया। बारह वर्षों की साधना में अधिकतर उपवास में ही रहे। साढे बारह वर्षों की साधना का निष्पत्ति प्राप्त हुई और उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसके बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए देशना आदि थी। और फिर पावापुरी में उनका महाप्रयाण हुआ। लगभग बहत्तर वर्ष का उनका आयुष्यकाल रहा। इस आचार्यश्री ने ‘भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा’ को सुसम्पन्न किया।
मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने भगवती संवत्सरी महापर्व की महिमा का वर्णन किया। भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों के विषय में साध्वी राजश्री ने अपनी प्रस्तुति दी। सायं करीब तीन बजे पुनः महावीर समवसरण में भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री का शुभागमन हुआ। आचार्यश्री ने आज के दूसरे सत्र के मंगल प्रवचन में तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य अनुशास्ता आचार्यश्री भिक्षु, द्वितीय अनुशास्ता आचार्यश्री भारमलजी स्वामी, आचार्यश्री रायचन्दजी स्वामी, आचार्यश्री श्रीमज्जयाचार्यजी, आचार्यश्री मघवागणी, आचार्यश्री माणकगणी, आचार्यश्री कालूगणी, आचार्यश्री तुलसी व आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने जीवन प्रसंगों को सरस वर्णन किया तो जनता निहाल हो उठी।
साध्वीप्रमुखा साध्वी विश्रुतविभाजी ने वर्तमान आचार्यश्री महाश्रमणजी के जीवनवृत्त व कर्तृत्व का वर्णन किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने आचार्य संपदा विषय पर चर्चा प्रदान की। साध्वी प्रबुद्धयशाजी द्वारा जैन धर्म की प्रभावक साध्वियों पर चर्चा की। इस प्रकार पूरे दिन धर्म व अध्यात्म की बहती इस ज्ञानगंगा में श्रद्धालु डुबकी लगाते रहे और अपने जीवन को धन्य बनाते रहे।