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ज्ञान और आचार से जीवन की गति होगी अच्छी : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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-आचार्यश्री ने वायुकाय के जीवों की हिंसा से बचने की दी प्रेरणा

-एन.आर.आई. श्रद्धालुओं ने भी अपने आराध्य के समक्ष दी अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति

-मुनि पारसकुमारजी ने महातपस्वी आचार्यश्री से 49 की तपस्या का किया प्रत्याख्यान

सूरत।जन-जन का कल्याण करने के लिए पचपन हजार किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा करने वाले अखण्ड परिव्राजक, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी वर्तमान समय में अपनी धवल सेना संग भारत के सबसे उन्नत प्रदेशों में ख्यात गुजरात प्रदेश के डायमण्ड व सिल्क सिटि के रूप में विश्व विख्यात सूरत शहर में चातुर्मास कर रहे हैं। भगवान महावीर युनिवर्सिटी के परिसर में बने संयम विहार में चातुर्मास करने वाले युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में निरंतर देश-विदेश से श्रद्धालुओं के पहुंचकर आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर रहे हैं। 

रविवार को महावीर समवसरण में सूरत के श्रद्धालुओं के साथ जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा के तत्त्वावधान में आयोजित एन.आर.आई. समिट के द्विदिवसीय सम्मेलन में भाग लेने वाले 15 देशों के अप्रवासी श्रद्धालु भी उपस्थित थे। जनता को सर्वप्रथम साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने जनता को संबोधित किया। 

तदुपरान्त युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी अमृतवाणी का रसपान कराते हुए कहा कि आयारो आगम में वायुकाय की हिंसा की बात बताई गयी है। जिस प्रकार जल, पृथ्वी, अग्नि व वनस्पति सजीव है तो जैन आगमों में वायु को भी सजीव माना गया है। इसमें वायुकाय के जीवों की हिंसा हो सकती है। प्रश्न हो सकता है कि वायुकाय के जीवों की हिंसा कौन करता है तो यह बताया गया कि जो आचार में रमण नहीं करते, जो आचार निष्ठ नहीं होते, वे वायुकाय की हिंसा करते हैं। साता के मानस से आकुल लोग वायुकाय के जीवों की हिंसा करने वाले होते हैं। 

गर्मी के दिनों में आदमी हवा के बंद होने और गर्मी के कारण बहुत परेशान होता है। वह हवा लेने के लिए तमाम संसाधन से हवा लेने का प्रयास करता है। हवा के लिए सामान्य आदमी कितनी व्यवस्था भी करता है। पंखा, कूलर, एसी आदि का प्रयोग गृहस्थ करता है। जैसे जीवन में भोजन, पानी की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार गर्मी से राहत पाने के लिए इन उपकरणों, यंत्रों की आवश्यकता होती है। ऐसे में साधु हाथ के पंखे का प्रयोग नहीं करता, वह साधना की बात हो सकती है। आदमी को यथासंभव संयम रखने का प्रयास करना चाहिए। 

आदमी के जीवन में ज्ञान का विकास भी होना चाहिए तो आचार पक्ष भी सुदृ़ढ़ होना चाहिए। हालांकि इन सूक्ष्म हिंसा आदमी यथासंभव तो प्रयास करे, किन्तु आवश्यक हिंसा तो संभव है। आदमी के जीवन में ज्ञान के विकास के साथ आचार का भी विकास होना चाहिए। विद्यार्थी, महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले होते हैं। विद्यार्थी ज्ञानार्जन कर विद्वान, डॉक्टर, वकील, न्यायाधीश, इंजीनियर्स, प्राध्यापक आदि होते हैं। इसका अर्थ कि उन्होंने वर्षों अपना लगाया होगा, परिश्रम किया होगा, तब जाकर विशेष विद्वान बनते हैं। साधु-साध्वियां भी अच्छा ज्ञान रखने वाले हैं। हिन्दी, अंग्रेजी, ज्योतिष, संस्कृत आदि का अध्ययन कर तब जाकर वे विद्वार चारित्रात्मा के रूप में सामने आते हैं। परम पूज्य आचार्यश्री तुलसी और आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के ज्ञान का तो कहना ही क्या। कितने-कितने ग्रंथ, साहित्य आदि इसके प्रमाण हैं। ज्ञान जीवन का एक पक्ष है। ज्ञान की आराधना भी एक सारस्वत साधना है। ज्ञान की आराधना के लिए संयम, त्याग का होना भी आवश्यक होता है। ज्ञानवान बनने के लिए श्रद्धा, निष्ठा, समर्पण और त्याग की आवश्यकता है। जीवन का दूसरा पक्ष आचार होता है। ज्ञान हो और आचार नहीं हो तो जीवन की गति अच्छी नहीं हो सकती। इसलिए आदमी का आचरण भी उन्नत बने तो जीवन की गति अच्छी हो सकती है। ईमानदारी, प्रमाणिकता, निष्ठा, शांति रहे। 

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त मुनि पारसकुमारजी ने 49 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया। आचार्यश्री ने उन्हें शुभाशीष प्रदान करते हुए प्रत्याख्यान कराया। तदुपरान्त अनेक श्रद्धालु तपस्वियों ने अपनी-अपनी भावना के अनुसार तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। मुनि उदितकुमारजी ने लोगों को तपस्या के संदर्भ में उत्प्रेरित किया। 

एन.आर.आई. समिट के संभागी भी ऐसे आध्यात्मिक माहौल में आकर स्वयं को धन्य महसूस कर रहे थे। एन.आर.आई. बालक सार्थ हरकावत ने अपनी प्रस्तुति दी। वर्ल्ड पीस सेण्टर लन्दन ट्रस्ट के श्री आशु बोहरा व श्री जीतू ढेलड़िया ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। नीदरलैण्ड से बालिका आज्ञा भूतोड़िया ने चौबीसी के गीत को प्रस्तुति दी। पान्डेसरा ज्ञानशाला के ज्ञानार्थियों ने अपनी भावपूर्ण प्रस्तुति दी। 

 

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