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विकृति में नहीं, प्रकृति में रहे मानव : मानवता के मसीहा महाश्रमण

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दो संप्रदायों के संत समुदाय का आध्यात्मिक मिलन

बड़े सौभाग्य से आपके दर्शन का अवसर मिला : स्वामी नारायणमुनि

-महातपस्वी महाश्रमण से नारायणमुनि स्वामी सहित अनेक संतों का हुआ समागमन

-जैविभा ने जय तुलसी विद्या पुरस्कार समारोह का किया आयोजन 

सूरत।जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में शुक्रवार को प्रातः स्वामीनारायण सम्प्रदाय के सारंगपुर स्थित संत तालिम केन्द्र के मुख्य सिनियर संत नारायणमुनि स्वामी, स्वामीनारायण मंदिर-सूरत के उत्तमप्रकाश स्वामीजी सहित अनेक संत उपस्थित हुए। मंगल प्रवचन से पूर्व आचार्यश्री के प्रवास कक्ष में ही सभी ने आचार्यश्री को वंदन-अभिनंदन कर स्थान ग्रहण किया। आचार्यश्री का उनसे लम्बे समय तक वार्तालाप का क्रम रहा। वार्तालाप के उपरान्त आचार्यश्री संग स्वामीनारायण संप्रदाय के संत भी आज के मुख्य प्रवचन कार्यक्रम में सहभागी बनने के लिए उपस्थित हुए। 

महावीर समवसरण में मंच पर युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की श्वेत वस्त्रधारी संत शोभायमान हो रहे थे तो दूसरी ओर स्वामीनारायण संप्रदाय के संत केशरिया वस्त्र में सुशोभित हो रहे थे। समुपस्थित जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि आयारो आगम में बताया गया है कि शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श- इनको ग्रहण करने के लिए हमारी पांच इन्द्रियां कान, आंख, जिह्वा, नाक और त्वचा हैं। कान से शब्द को ग्रहण किया जाता है। आंखों के द्वारा रूप को देखते हैं। नाक से गंध से लेते हैं। जिह्वा से स्वाद लेते हैं, चखते हैं। त्वचा से स्पर्श का अनुभव करते हैं। पांच इन्द्रियों के पांच व्यापार अर्थात् ये पांच प्रवृत्तियां करता है। 

इन पांच इन्द्रियों से आदमी विषयों को ग्रहण कर ज्ञान प्राप्त करते हैं। जहां तक ज्ञान की बात है, वहां तक तो ठीक है, लेकिन जहां इन्द्रियों के विषयों के ग्रहण करने में राग-द्वेष आ गया, वहां विकृति आ जाती है। जैसे आदमी कुछ सुना, गुस्से में आ गया, किसी को देखा क्रोध से तमतमा उठा। इस प्रकार की विकृति आ जाती है, वहां बात ठीक नहीं होती, इसलिए आदमी को विकृति में नहीं अपनी प्रकृति में रहने का प्रयास करना चाहिए। सुनना और देखना प्रवृत्ति होता है, लेकिन राग-द्वेष करना वह मानव की विकृति हो जाती है। जितना संभव हो सके, आदमी को प्रकृति में रहने का प्रयास करें। जो सुनने लायक हो, उसे सुनने का प्रयास हो और जो देखने लायक हो उसे देखने का प्रयास करें और नहीं देखने लायक है, उसे नहीं देखना चाहिए। आदमी को अपने इन्द्रियों को संयमित रखने का प्रयास करना चाहिए। 

आचार्यश्री ने समुपस्थित स्वामीनारायण संप्रदाय के साधु और संतों को भी पावन प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि धर्म-अध्यात्म की साधना करते हुए जनता का जितना कल्याण कर सकें, करने का प्रयास होता रहे। 

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के उपरान्त स्वामी नारायणमुनि स्वामी ने जनता को उद्बोधित करते हुए कहा कि आज हमें बहुत आनंद हो रहा है, कि आज हम सभी को गुरु महाराज आचार्यश्री महाश्रमणजी के पास आने का अवसर मिला है। आज के अवसर पर मुझे आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की स्मृति हो रही है। जब वे पधारे थे, तब आप भी उपस्थित थे। आप सभी परम सौभाग्यशाली हैं जो ऐसे संत के नित्य दर्शन करने और सत्संग श्रवण करने का लाभ प्राप्त कर रहे हैं। संतों का समागम बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। 

मुनि वंदनदासजी स्वामी ने भी अपने विचारों की अभिव्यक्ति दी और अपने प्रमुख स्वामी महंतजीस्वामी के शुभेच्छा पत्र का वाचन श्री जिग्नेश नरोला ने किया। चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री संजय सुराणा ने डॉ. राधाकृष्ण देव का परिचय प्रस्तुत किया। डॉ. राधाकृष्ण देव ने भी अपनी अभिव्यक्ति दी। 

आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आज जैन विश्व भारती की ओर जय तुलसी विद्या पुरस्कार समारोह का आयोजन किया गया, जिसमें भगवान महावीर युनिविर्सिटि इस वर्ष का यह पुरस्कार जैन विश्व भारती के पदाधिकारियों द्वारा प्रदान किया गया। श्री विजय सेठिया ने चौथमल कन्हैयालाल सेठिया चैरिटेबल ट्रस्ट की जानकारी प्रस्तुत की। भगवान महावीर युनिवर्सिटि के प्रेसिडेंट श्री संजय जैन ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने इस संदर्भ में पावन आशीर्वाद प्रदान किया। इस कार्यक्रम का संचालन जैन विश्व भारती के मंत्री श्री सलिल लोढ़ा ने किया। तेरापंथ महिला मण्डल-छापर ने अपनी प्रस्तुति दी। 

 

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