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अध्यात्म की साधना आत्मकल्याण के लिए : सिद्ध साधक आचार्यश्री महाश्रमण

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-भगवती सूत्र के माध्यम से आत्मा के संकोच व विस्तार को आचार्यश्री ने किया व्याख्यायित  

-उमड़ी श्रद्धालु जनता को आचार्यश्री ने कराया ध्यान का प्रयोग

-आध्यात्मिक उत्कर्ष में आगे बढ़ने का हो प्रयास : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण 

-उत्कर्ष कार्यक्रम से जुड़े लोगों ने विभिन्न रूपों में दी प्रस्तुति

मीरा रोड (ईस्ट), मुम्बई। मायानगरी मुम्बईवासियों का रविवार इस समय आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करने में व्यतीत हो रहा है। यह लाभ प्राप्त करने के लिए हजारों की संख्या में मुम्बईवासी रविवार के दिन जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें पट्टधर, अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में पहुंचते हैं और पूरे दिन प्रवचन श्रवण, सेवा, उपासना आदि से आध्यात्मिक लाभ प्राप्त कर रहे हैं। 

रविवार को नन्दनवन परिसर में बना विशाल व भव्य तीर्थंकर समवसरण प्रवचन पण्डाल आचार्यश्री के पदार्पण से पूर्व ही जनाकीर्ण बन गया था। प्रवचन पण्डाल के आसपास क्षेत्रों में भी श्रद्धालुओं की उपस्थिति लोगों की आचार्यश्री के प्रति आस्था को दर्शा रही थी। निर्धारित समय पर महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी मंचासीन हुए तो पूरा प्रवचन पण्डाल जयघोष से गुंजायमान हो उठा। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व विशाल जनमेदिनी को साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने उद्बोधित किया। 

तदुपरान्त अध्यात्म जगत के महासूर्य आचार्यश्री महाश्रमणजी ने समुपस्थित जनता को अपनी अमृतवाणी का रसपान कराने से पूर्व ध्यान का प्रयोग कराया। ध्यान का प्रयोग कराने के उपरान्त आचार्यश्री ने भगवती सूत्राधारित अपने प्रवचन में कहा कि आत्मवाद से संदर्भित प्रश्न पूछा गया कि जीवों के शरीर के कई टुकड़े हो जाने के बाद भी क्या जीव प्रदेश उनमें विद्यमान रहते हैं? उत्तर दिया गया हां, रहते हैं? पुनः प्रश्न किया गया कि क्या उनके बीच में कोई शस्त्र का प्रहार करे, आग लगाए तो उन जीव प्रदेशों अर्थात आत्मप्रदेशों कटते अथवा जलते हैं? उत्तर दिया गया नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। जीव प्रदेश तो हाते हैं, किन्तु आत्मा को न जलाया जा सकता है, न सूखाया जा सकता है, न काटा जा सकता है और न ही छेदा जा सकता है। आत्मा के प्रदेशों में विस्तार और संकोच की क्षमता होती है, इसलिए उनपर किसी शस्त्र अथवा आग, पानी का कोई प्रभाव नहीं होता। 

अध्यात्म की साधना का मूल तत्त्व आत्मा है। अध्यात्म की साधना के द्वारा आत्मा का कल्याण करने का प्रयास करना चाहिए। चारित्रात्माओं को अपनी आत्मा के कल्याण के प्रति जागरूक रहने का प्रयास करना चाहिए। किसी भी प्रकार से जीव की हिंसा न हो, इसलिए प्रतिलेखन पूर्ण जागरूकता के साथ करने का प्रयास करना चाहिए। अहिंसा पूर्ण पालना के लिए साधु को अल्पोपधि होना चाहिए। वस्त्र, पात्र, पुस्तक, ग्रन्थ आदि का भी समय-समय पर प्रतिलेखन करने का प्रयास करना चाहिए। 

आचार्यश्री ने चतुर्दशी के संदर्भ में हाजरी का वाचन करते हुए समुपस्थित चारित्रात्माओं को विविध प्रेरणाएं प्रदान कीं। आचार, विचार, मर्यादा व नियमों के प्रति जागरूक रहने हेतु उत्प्रेरित किया। सभी चारित्रात्माओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया। 

आचार्यश्री ने मंगल प्रवचन के उपरान्त औरंगाबाद में अक्षय तृतीया करने के उपरान्त आगे के यात्रा पथ की घोषणा करते हुए 16-22 मई तक का प्रवास जालना में करने की घोषणा की। इस दौरान आचार्यश्री का दीक्षा कल्याण महोत्सव सहित आचार्यश्री का जन्मोत्सव और पट्टोत्सव भी मनाया जाएगा। इस संदर्भ मंे मुख्यमुनि महावीरकुमारजी ने जानकारी दी। 

आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में आचार्यश्री के मुम्बई चतुर्मास के संदर्भ में मुम्बईवासियों की ओर से उत्कर्ष नामक आध्यात्मिक आयोजन किया गया था। आचार्यश्री के समक्ष आज उसकी प्रस्तुति दी गई। इस कार्यक्रम में चतुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति-मुम्बई के अध्यक्ष श्री मदनलाल तातेड़, संयोजक श्री रतन सियाल व श्री नरेन्द्र तातेड़ ने अपनी अभिव्यक्ति दी। ‘उत्कर्ष परिणाम और प्रभाव’ नामक वीडियो प्रस्तुत किया गया। महिलाओं द्वारा परिसंवाद, उत्कर्ष से जुड़े सदस्यों ने गीत को प्रस्तुति दी। मुनि सिद्धकुमारजी ने उत्कर्ष विषय में अवगति प्रस्तुत की। आचार्यश्री ने इस कार्यक्रम को आध्यात्मिक पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि उत्कर्ष अनेक रूपों में हो सकता है। उत्कर्ष भौतिक और आध्यात्मिक रूप में भी हो सकता है। परम उत्कर्ष तो सिद्धत्व की प्राप्ति होती है। इस कार्यक्रम से जुड़ी सभी संस्थाएं आध्यात्मिक-धार्मिक गतिविधियों में अपना योगदान देते रहें। आचार्यश्री ने मुनिश्री महेन्द्रकुमारजी का स्मरण करते हुए अध्यात्म की दिशा में उत्कर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की। 

उत्कर्ष के नौ कार्यों को नौ रंगों के माध्यम से जोड़ा गया था तो इससे जुड़ी नौ मनके की माला भी बनाई गई थी, जिसे उत्कर्ष से जुड़े चारित्रात्माओं के निवेदन पर मुख्यमुनिश्री ने आचार्यश्री को समर्पित की तो आचार्यश्री ने वह माला मुख्यमुनिश्री के गले में डाल कर स्नेहाशीष प्रदान किया। यह दृश्य उपस्थित श्रद्धालुओं को भावविभोर करने वाला था। इस दृश्य को अपनी आखों से देखकर जनता ने बुलंद स्वर में जयघोष किया। अंत में अनेक तपस्वियों ने आचार्यश्री ने अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। 

 

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