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शिक्षा के बाधक तत्त्वों से बचने का हो प्रयास : युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमण

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-ज्योतिचरण की चरणरज से राष्ट्रीय राजमार्ग-48 बन रहा है पावन

-करीब 14 कि.मी. का विहार का शांतिदूत पहुंचे देथाण प्राथमिक मिश्रशाला

देथाण,भरुच।गुजरात की धरा पर आध्यात्मिकता की गंगा को प्रवाहित करते हुए जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशमाधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी निरंतर गतिमान हैं। स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना के अंतर्गत बना राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-48 युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी के चरणों का अनुगामी बना हुआ है। मंगलवार को प्रातः सूर्योदय के पश्चात आचार्यश्री ने वरेड़िया से मंगल प्रस्थान किया। वर्तमान में उत्तर भारत व उसके निकट स्थित राज्यों में शीत का व्यापक प्रभाव दिखाई दे रहा है तो उसका कुछ असर गुजरात के इस क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा है। हालांकि दिन चढने के साथ ही वह प्रभाव भी दूर हो जाता है। राजमार्ग के आसपास रहने वाले लोगों को अनायास ही आचार्यश्री के दर्शन का लाभ प्राप्त हो रहा है। 

युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणी लगभग चौदह किलोमीटर का विहार कर देथाण में स्थित प्राथमिक शाला में पधारे। मंगल प्रवचन में उपस्थित जनता व विद्यार्थियों को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आगम के माध्यम से पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि पांच ऐसे अवगुण होते हैं, जिनके कारण विद्यार्थी ज्ञान का अर्जन नहीं कर पाते। इनमें सबसे पहला अवगुण बताया गया है- अहंकार। खंभे के अनुसार तनकर के खड़े होने वाला विद्यार्थी को भला ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है। शिक्षा की प्राप्ति के लिए अहंकार से मुक्त रहने का प्रयास करना चाहिए। हालांकि कई स्थान पर स्तंभ की भांति तनकर खड़ा होना भी उचित होता है। हर जगह झुकना भी आवश्यक नहीं है, किन्तु ज्ञान की प्राप्ति के क्षेत्र में अहंकार का होना या स्तंभन वाला स्वभाव हितकर नहीं होता। विद्यार्थी में इतना अहंकार हो जाए कि वह अपने गुरु के सामने ही नहीं झुकता, नम्रता, विनम्रता न दिखाए तो भला उसे ज्ञान की प्राप्ति भी कितनी हो सकती है। इसलिए ज्ञान की प्राप्ति का साधक तत्त्व विनय है। 

ज्ञान की प्राप्ति में दूसरा बाधक तत्त्व है- क्रोध। क्रोध, गुस्सा भी ज्ञान प्राप्ति में बाधक तत्त्व है। दिमाग में गुस्सा भर गया तो भला ज्ञान कहां से प्रवेश कर सकता है। अपने गुरु के प्रति गुस्से का भाव तो विद्यार्थी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। तीसरा बाधक तत्त्व बताया गया- प्रमाद। प्रमाद के कारण विद्यार्थी नशे में चला जाए तो भी विद्या का सम्यक् अर्जन संभव नहीं हो सकता। शिक्षक पढाते हों और विद्यार्थी सो रहा हो तो भला ज्ञान कैसे प्राप्त हो सकता है। ज्ञान प्राप्ति में चौथा बाधक तत्त्व है- बीमारी। जो विद्यार्थी बीमार हो जाए तो उसे ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है। बीमार है तो अध्ययन, स्वाध्याय, सीखना, परिवर्तना करने आदि कार्य भी पूर्ण नहीं हो सकते। इस कारण शिक्षा की प्राप्ति में बीमारी भी एक बाधक तत्त्व है। विद्या की प्राप्ति में पांचवां बाधक तत्त्व है-आलस्य। यह मानव के शरीर में रहने वाला मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। जिस विद्यार्थी में आलस्य उजागर हो जाए, उसे शिक्षा की प्राप्ति कैसे हो सकती है? विद्यार्थी आलस्य के कारण पुस्तक ही हाथ में नहीं लेता, उसे ज्ञान की प्राप्ति कैसे हो सकती है। 

विद्या प्राप्ति के लिए इन पांचों बाधक तत्त्वों से बचने का प्रयास करना चाहिए। इन बाधक तत्त्वों से बचते हुए सार्थक उद्यम किया जाए तो अच्छे ढंग से ज्ञानार्जन किया जा सकता है। देथाण प्राथमिकशाला की आध्यापिका सोनल बेन चौहाण ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। आचार्यश्री ने विद्यालय परिवार को मंगल आशीर्वाद प्रदान किया।

 

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