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मनुष्य जीवन श्रेष्ठ है उसका उपयोग सर्वोत्तम न हो तो अधम तो नहीं होना चाहिए-आचार्य श्री महाश्रमणजी

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सूरत।युगप्रधान आचार्य श्री महाश्रमणजी का दिव्य प्रवचन भगवान महावीर विश्वविद्यालय परिसर के संयम विहार में मनोहर वातावरण में चल रहा है। हजारों की संख्या में धार्मिक श्रद्धालु श्रद्धापूर्वक गंगा में डुबकी लगा रहे हैं।
बुधवार को व्याख्यानमाला में आचार्यश्री ने मनुष्य जीवन एवं गुणस्थान पर दार्शनिक चर्चा की। पूज्य श्री ने कहा कि
मनुष्य जीवन बहुत महत्वपूर्ण है। 84 लाख जीव योनियों में मानव जीवन सर्वश्रेष्ठ है और इसका कारण यह है कि अध्यात्म की सर्वोच्च भूमिका तक केवल मनुष्य ही पहुँच सकता है, अन्य कोई प्राणी नहीं पहुँच सकता। प्रश्न यह है कि सर्वोच्च भूमिका क्या है? सर्वोच्च भूमिका है 14वां गुणस्थान। 14वें गुण स्थान तक सिर्फ गर्भज मनुष्य ही पहुंच सकता है, कोई और नहीं। शास्त्रों के अनुसार पांचवें गुणस्थान के बाद प्रत्येक गुणस्थान में मनुष्य की ही भूमिका होती है।
पंचम गुण स्थान एक ऐसा गुणस्थान है जो गर्भज मनुष्य में भी हो सकता है और गर्भज तिर्यंच पंचेंद्रिय में भी मौजूद हो सकता है। चौथा गुणस्थान सभी चार गतियों में उपलब्ध है। ऐसा कहा जाता है कि 12वें गुण स्थान तक मनुष्य संज्ञी रहता है और 13वें गुण स्थान पर मनुष्य संज्ञी नहीं रहता। वही 14वें गुणस्थान पर हैं। इन दोनों स्थानों पर मनुष्य की नोसंज्ञी-नो असंज्ञी अवस्था प्राप्त होती है। तो फिर प्रश्न उठता है कि मृत्यु से पहले किसी व्यक्ति की संज्ञी असंज्ञी कैसे हो सकती है? उत्तर में इन दोनों का संबंध कर्म के क्षयोपशाम और उदय से है। मनुष्य जन्म इसलिए उत्कृष्ट है क्योंकि किसी भी अन्य गति में अगले गुण स्थान पर साधना नहीं की जा सकती। मानव जीवन सर्वोत्तम है लेकिन इसका उपयोग अच्छे के लिए भी किया जा सकता है और बुरे के लिए भी। सर्वोत्तम मानव जीवन का उपयोग सर्वोत्तम तरीके से किया जाना चाहिए, लेकिन यदि ऐसा नहीं किया जा सकता है, तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि इसे अधम तरीके से तो न किया जाए। जो जीवन का अधमता पूर्वक उपयोग करता है वह सातवें नरक में जाता है। प्रयत्न यह करना चाहिए कि मानव जीवन का सर्वोत्तम उपयोग करके 14वें गुण स्थान अर्थात् मोक्ष के द्वार तक पहुँचा जा सके, परन्तु वहाँ न भी जा सके तो भी छठे और सातवें स्थान तक पहुँच सके तो भी बहुत है।
 पूज्य आचार्यश्री ने कहा कि साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका का चार तीर्थों में स्थान है यदि साधु साध्वी बन सके तो बहुत अच्छा है और यदि साधु साध्वी नहीं बन सकते हैं तो श्रावक - श्राविका का होना आवश्यक है। चातुर्मास में ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चरित्राराधना और तपाराधना करने से आत्मा का कल्याण होगा। आचार्यश्री ने आगामी पर्व तिथियों को लेकर अट्ठाई एवं अन्य तप आराधना की सुंदर प्रेरणा दी। पर्यूषण की आराधना के लिए जाने वाले उपासक उपासिका भी ज्ञानाराधना का ही क्रम है।
 प्रवास व्यवस्था समिति के उपाध्यक्ष श्री अनिल चंडालिया, महासचिव नानालाल राठौड़, तेरापंथी सभा अध्यक्ष मुकेश बैद, युवा परिषद अध्यक्ष अभिनंदन गादिया, महिला मंडल अध्यक्ष चंदा भोगर, महिला मंडल कन्या मंडल सूरत, तेरापंथ प्रोफेशनल फोरम सूरत, ज्ञानशाला उधना, किशोर मंडल उधना आदि द्वारा प्रस्तुतियां दी गईं।
 आचार्यश्री महाश्रमणजी ने धर्म आराधना की दृष्टि से बनाये गये भव्य संयम विहार का अवलोकन किया। पूज्य श्री ने कुटिरों पर नैतिक सदाचार और नशे से परहेज़ को दर्शाने वाले भित्ति चित्र भी देखे।


शुक्रवार 19 जुलाई को आचार्य श्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में भव्य दीक्षा समारोह का आयोजन किया जाएगा

कुल आठ भाई-बहन दीक्षा लेंगे, जिनमें समणी अक्षय प्रज्ञाजी और समणी प्रणव प्रज्ञाजी समण श्रेणी से श्रमण श्रेणी (साधु श्रेणी) में प्रवेश करेंगे, जबकि मुमुक्षु सुरेंद्र कोचर, विकास बाफना, दीक्षिता संघवी, मीनल परीख, नूपुर बरडिया और मीनाक्षी सामसुखा जो सभी स्नातक और स्नातकोत्तर हैं, सभी सांसारिक संबंधों और भौतिक संपत्तियों को त्याग कर संयम का मार्ग अपनाएंगे।
 दीक्षा समारोह आचार्यश्री की निश्रा में संयम विहार में होगा, जिसके उपलक्ष्य में 18 जुलाई को दीक्षार्थियों की संयम शोभा यात्रा दोपहर 1 बजे वेसू स्थित सेलेस्टियल ड्रीम से रवाना होकर संयम विहार पहुंचेगी और रात्रि 8 बजे मंगल भावना समारोह का आयोजन होगा। इसके बाद 19 जुलाई को सुबह 9 बजे एक भव्य दीक्षा समारोह आयोजित किया जाएगा, जिसमें दो समणीजी और छह मुमुक्षु आचार्यश्री महाश्रमणजी के सान्निध्य में दीक्षा लेंगे।

 

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