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पुर्यषण महापर्व में तपोवन-सा बन गया है नन्दनवन : शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमण

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 -सम्यक्त्व से बड़ा मित्र, रत्न व लाभ कोई नहीं : सम्यक्त्व साधक आचार्यश्री महाश्रमण 

-सामायिक दिवस पर आचार्यश्री ने दी सामायिक की प्रेरणा 

-साध्वीप्रमुखाजी व साध्वीवर्याजी के उद्बोधन के उपरान्त मुख्यमुनिश्री ने किया गीत का संगान

घोड़बंदर रोड,मुम्बई।जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने गुरुवार को पर्युषण महापर्व के तीसरे दिन समुपस्थित श्रद्धालु जनता को पावन प्रतिबोध प्रदान करते हुए कहा कि भगवान महावीर की अध्यात्म यात्रा में जब भगवान महावीर का जीव नयसार के भव में था, उसे साधुओं से प्रेरणा मिली तो उसने सम्यक्त्व को धारण किया। जिसके फलस्वरूप वह आत्मा प्रथम देवलोक सवधर्म लोक में पैदा हुई। सम्यक्त्व का जीवन में आना बहुत बड़ी बात होती है। सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाए तो उससे बड़ा कोई रत्न नहीं, कोई मित्र नहीं, कोई बंधु नहीं और उससे बड़ा कोई लाभ नहीं होता। सत्य के प्रति आस्था हो, सच्चाई व यथार्थ के प्रति निष्ठा हो। जिनेश्वर भगवान ने जो प्रवेदित किया, वही सत्य है। कषाय मंद होगा तो सम्यक्त्व का भाव और भी पुष्ट हो सकता है। विनम्रता का भाव रखने का प्रयास हो। जीवन में प्राप्त सम्यक्त्व को आगे बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए। 

भगवान महावीर की आत्मा जब नयसार के भव थी तो उसे साधुओं से प्रेरणा मिली और वह सम्यक्त्व को प्राप्त किया। इसकारण वह प्रथम देवलोक में पहुंची और वहां से आयुष्य पूर्ण कर भगवान ऋषभ के पुत्र भरत के बेटे मरीचि के रूप में उत्पन्न हुई। अच्छा कुल और अच्छे परिवार की प्राप्ति भी सौभाग्य की बात होती है। भगवान ऋषभ की देशना को सुनने को अवसर मिला तो मरीचि के मन में पुनः वैराग्य की भावना जागृत हो गई। प्रवचन सुनना भी अच्छी बात होती है। वर्तमान समय में नन्दनवन में साधु-साध्वियों के द्वारा पर्युषण में धर्माराधना किए जाने के साथ-साथ कितने-कितने श्रावक-श्राविकाएं भी पर्युषण महापर्व के अंतर्गत यहां पहुंचे हुए और निरंतर धर्म, ध्यान, साधना, जप, स्वाध्याय, तप आदि का क्रम चल रहा है। इससे यह नन्दनवन भी मानों तपोवन-सा बन गया है। 

आचार्यश्री ने सामायिक दिवस के संदर्भ में उपस्थित श्रद्धालुओं को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि पर्युषण पर्व के दौरान इस धर्म की गंगा में श्रद्धालु डुबकी लगा रहे हैं। इससे आत्मा निर्मल बन सकती है। साधुओं को तो सर्व विरति की सामायिक होती है। श्रावकों के लिए छह कोटि, आठ कोटि और नौ कोटि की सामायिक बताई गई है। श्रावक नौ कोटि की सामायिक भी करे तो भी साधुओं के सामायिक की बराबरी तो नहीं कर सकते। सामायिक न शुभ योग है और न ही अशुभ योग है। सामायिक संवर है, इस दौरान शुभ अथवा अशुभ योग हो सकता है। शनिवार को सात से आठ बजे की सामायिक करनी ही है, ऐसा प्रयास होना चाहिए। घर में शादी का भी माहौल हो और शादी में देरी हो तो मेहमान ही वर-वधू भी सात से आठ बजे के बीच सामायिक कर सकते हैं। 

पचास वर्ष की अवस्था के बाद तो प्रतिदिन एक सामायिक करने का प्रयास करना चाहिए। युवा व किशोर रोज एक सामायिक न कर सकें तो सप्ताह में एक सामायिक करने का प्रयास कर सकते हैं। सामायिक के दौरान कोई दोष लगे तो आदमी को आलोयणा लेकर सामायिक को शुद्ध बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। इससे आत्मा का कल्याण हो सकता है। 

आचार्यश्री के मंगल प्रवचन से पूर्व मुनि नमनकुमारजी भगवान आदिनाथ के जीवन पर प्रकाश डाला। साध्वी प्रफुल्लप्रभाजी आदि साध्वियों ने सामायिक दिवस के संदर्भ में गीत का संगान किया। साध्वीप्रमुखा विश्रुतविभाजी ने सामायिक दिवस के महत्त्व को वर्णित किया। साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने आर्जव-मार्दव धर्म को विवेचित किया। मुख्यमुनिश्री महावीरकुमारजी ने आर्जव-मार्दव धर्म के संदर्भ में गीत का संगान किया। 

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