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मन और शरीर को अध्यात्म साधना के लिए बनायें साधक तत्व:जिन मणिप्रभ सुरीश्वरजी

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गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी ने इगो, स्वार्थ मुक्त जीवन जीने की दी प्रेरणा

चेन्नई । श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने उत्तराध्यन सूत्र के चौथे अध्याय की गाथा का विवेचन करते कहा कि हमारी नजर शरीर पर या उनके भविष्य पर ही नहीं रहनी चाहिए, शरीर का भविष्य तो निश्चित हैं, वह मिटने वाला है। हमारा तो लक्ष्य एक ही रहना चाहिए कि हमारी आत्मा का भविष्य उज्जवल बने। अगले जन्म में कहा जाना है, क्यों जाना है, मेरा अन्तिम लक्ष्य क्या है? चौरासी लाख जीवा योनी में भटकता आ रहा हूँ, कभी नरक में तो कभी देव में, कभी मनुष्य में तो कभी तिर्यंच में। क्या अभी भी मैं कभी सुख कभी दु:ख में, कभी अनुकूलता कभी प्रतिकूलता में ही जीना चाहता हूँ? मुझे अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करना है, सिद्ध शिला में अवस्थित होना है, जहां पर पहुंचने के बाद मेरा भटकना बन्द हो जायेगा, सुख दु:ख समाप्त हो जाता है, जहां केवल और परम् आनन्द की अनुभूति रहती हैं, अपने स्वरूप में रहता हूँ। मनुष्य के इस भव में जब अध्यात्म में रमण करते हुए पल, दो पल के समय जो अथाह आनंद की प्राप्ति होती हैं, उसे में परमानेंट पाना चाहता हूँ।

 साध्य मिलने पर साधनों की नहीं होती जरुरत
गुरुवर ने कहा कि मन और शरीर साधना के लिए साधक तत्व है और मोक्ष प्राप्ति में बाधक भी है। लेकिन सिद्धत्व को प्राप्त करने के बाद, साध्य को प्राप्त करने के बाद, इन साधनों की भी जरूरत नहीं रहती है। ऊपर के लिए सिढ़ियाँ जरूरी है तो ऊपर राजमहल में पहुचंने पर उन्हें छोड़ना भी जरूरी है।

 बांसुरी के गुणों को धारण करें जीवन में
बांसुरी के गुण अनुपम है, बड़े अनुठे है जैसे- बांसुरी में कोई गांठ (ग्रंथि) नहीं है, पोली (खाली) होती है, बांसुरी कभी भेद नहीं करती, (उसका उपयोग करने वाला अमीर हो या गरीब, बड़ा हो या छोटा, बिना भेद किये वह संगीत की धून सुनाती है), बांसुरी मीठा बोलती है, तभी बोलती है, जब कोई बजाता है। जरूरत हो तो बोलती है नहीं तो मौन धारण कर लेती हैं। मनुष्य अगर इन गुणों को धारण कर लेता है तो अपना कल्याण कर सकता है।

 अनेकों गुणों को खा जाने वाला केवल इगो
गच्छाधिपति ने कहा कि मनुष्य के भीतर में कषाय की, राग द्वेष की, ईर्ष्या की गांठें भरी हुई है। इन सब में खतरनाक है इगो की गांठ, अहंकार की गांठ। हमारे सुखों का अध्याय समाप्त करने वाला, अनेकों गुणों को खा जाने वाला केवल इगो है। फिर भी हम इगो को लेकर चलते है। वह हमारे आँख पर चढ़ा रहता है, नाक पर गढ़ा रहता है। हर समय हमारे मस्तिष्क में, जीवन में, भाषा में, व्यवहार में, दृष्टिकोण में रहता है। इगो कभी हारने पर भी हार स्वीकार नहीं करता, दूसरों पर क्लेम लगायेगा, आरोप लगायेगा। जब तक छदमस्त है तब तक गलतियां हो सकती है। परन्तु आत्म विकास के लिए इगो को छोड़ना जरूरी।

 विशेषरूप से दु:ख में साथ रहता प्रेम
 विशेष पाथेय प्रदान करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि प्रेम सुख में साथ रहे या नहीं लेकिन दु:ख में जरूर साथ देता है। हमारा कोई प्रिय मित्र या परिजन रहता है वह दु:ख में सदैव हमारे साथ रहता है, हमें छोड़ता नहीं, हमारी सारणा-वारणा करता है।

 प्रेम की मृत्यु होती अहंकार के कारण
गुरु भगवंत ने कहा कि वर्तमान में जो परिवार में, भाईयों के बीच में, समाज में लड़ाई झगड़ा होता है। उसमें सिद्धांतों पर स्वार्थ हावी हो जाता है। धर्म को भूल जाते है। अहंकार के कारण प्रेम की मृत्यु हो जाती हैं।
समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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