-भगवती सूत्र द्वारा युगप्रधान आचार्यश्री ने मोहनीय कर्म बंध का किया विवेचन
-पूज्य कालूगणी द्वारा उदयपुर की दी जाने वाली दीक्षा प्रसंगों के श्रवण से श्रद्धालु लाभान्वित
मीरा रोड रोड (ईस्ट),मुम्बई।भारत की आर्थिक राजधानी के विख्यात मायानगरी मुम्बई महानगर बरसात के दिनों में भारी वर्षा के लिए भी जानी जाती है। इन दिनों मुम्बई में लगातार वर्षा का क्रम जारी है। इसके बावजूद भी मुम्बईवासी श्रद्धालु नन्दनवन में विराजमान अपने अराध्य, जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी की मंगल सन्निधि में उनकी अमृतवाणी का रसपान करने के लिए नियमित रूप से उपस्थित होते हैं। अपने आराध्य के श्रीमुख से आगमवाणी और अपने पूर्वाचार्यों के जीवनवृत्त का श्रवण कर अपना जीवन धन्य बना रहे हैं।
शुक्रवार को नन्दनवन परिसर में बने तीर्थंकर समवसरण में उपस्थित श्रद्धालु जनता को युगप्रधान आचार्यश्री महाश्रमणजी ने भगवती सूत्र के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि तीन कर्म बंधनों की चर्चा के उपरान्त अब प्रश्न चौथे मोहनीय कर्म बंध के संदर्भ में प्रश्न किया गया कि मोहनीय कर्म का बंध कैसे होता है? उत्तर दिया गया कि तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र लोभ, तीव्र मोह और तीव्र माया के कारण मोहनीय कर्म का बंध होता है। आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे मुख्य कर्म है या इसे सभी कर्मों का सेनापति भी कहा जा सकता है। सभी कर्मों के क्षय के अंत में यह समाप्त होता है। यह चाहे तो साधु को साधना से च्यूत कर दे, यह चाहे तो सामान्य मनुष्य को मिथ्यात्वी बना दे और यह चाहे तो मिथ्यात्वी को पातकी बना दे। साधना में सबसे बड़ा बाधक मोहनीय कर्म है।
इसलिए आदमी को क्रोध, अहंकार, माया, लोभ आदि की तीव्रता से बचने का प्रयास करना चाहिए। जितना संभव हो इन्हें कम करने का प्रयास हो। आदमी को तीव्र गुस्सा, तीव्र अहंकार, तीव्र लोभ से यथासंभव बचने का प्रयास करे। पिता कभी अपने पुत्र को डांटे, लेकिन डांट इतनी भी ज्यादा न हो जाए कि आपस में मारपीट की स्थिति बन जाए। आदमी को अति लोभ से भी बचने का प्रयास करना चाहिए। अति लोभ के कारण किसी अन्य की वस्तु को चुरा लेना, ठगी करना आदि बुरे कार्यों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
इस आगमवाणी से यह प्रेरणा ली जाए कि तीव्र गुस्सा, तीव्र माया, तीव्र, अहंकार और तीव्र लोभ न आए। जहां तक संभव को तीव्र, तीव्रतम और तीव्रतर से बचते हुए मंद, मंदतम और मंदतर बनाने का प्रयास हो। कषाय जितने मंद/क्षीण हों, आत्मकल्याण की दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। कषायों के परित्याग से आत्मा का ही नहीं, पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्था भी अच्छी बनी रह सकती है।
आगमाधारित मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ने कालूयशोविलास का सरसशैली में वाचन करते हुए पूज्य कालूगणी द्वारा उदयपुर में आयोजित दीक्षा समारोह के कार्यक्रम की भव्यता, उसकी व्यवस्था का सरसशैली में वाचन किया। आचार्यश्री की मंगल सन्निधि में अनेकानेक तपस्वियों ने अपनी तपस्या का प्रत्याख्यान किया।