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बाह्य और अध्यात्म दोनों जगत जाने मानव : अध्यात्मवेत्ता आचार्यश्री महाश्रमण

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-आगमवाणी की वर्षा में अभिस्नात बन रही डायमण्ड सिटि की जनता

-जनता को साध्वीवर्याजी ने किया संबोधित 

सूरत।सूरत शहर में आसमान से होने वाली अब बरसात भले ही मंद हो गयी है अथवा कह दें बंद-सी हो गयी है, किन्तु जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अधिशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी के श्रीमुख से निरंतर अमृतमयी वर्षा हो रही है। इस अमृतमयी वर्षा में सराबोर होने के लिए प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु उपस्थित होते हैं और अपने जीवन को इन अमृत बूंदों से भावित बनाने का प्रयास करते हैं। 

शुक्रवार को महावीर समवसरण से भगवान महावीर के प्रतिनिधि आचार्यश्री महाश्रमणजी ने आयारो आगम पर आधारित अपने पावन पाथेय में कहा कि दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं-अध्यात्म और बाह्य। जो अध्यात्म को जानता है, वह बाह्य को जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है। एक अध्यात्म का जगत है और दूसरा बाह्य जगत है। एक चेतना और आत्मा का जगत है और दूसरा भौतिकता का जगत है, अचैतन्य का जगत है। अंतरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है। शरीर, वाणी और मन की भिन्नता होने पर भी चेतना की समानता है, वह अध्यात्म है। वीतरागता चेतना अध्यात्म है। वीतरागता से बाहर रहना बाह्य जगत में रहना होता है। ज्ञान अध्यात्म जगत का भी हो सकता है और बाह्य जगत का भी हो सकता है। ज्ञान अपने आप में प्रकाश है। ज्ञान दोनों को जानता है। ज्ञान अपने आप में पवित्र तत्त्व होता है। आदमी के पास अच्छी बातों का भी ज्ञान हो सकता है और बुरी बातों का भी ज्ञान हो सकता है। जानने के बाद छोड़ने योग्य, ग्रहण करने योग्य और जानने योग्य। 

पाप और पुण्य को जाना जाता है तो संवर को भी जाना जाता है तो निर्जरा को भी जाना जाता है। जानने के बाद जो छोड़ने योग्य होता है, उसे छोड़ने का प्रयास करना चाहिए तथा जो ग्रहण करने योग्य हो, उसे ग्रहण करने का प्रयास करना चाहिए। पक्ष को जानने वाले के लिए प्रतिपक्ष को भी जानना आवश्यक होता है। किसी पक्ष का खण्डन करने के लिए उस पक्ष की भी जानकारी रखने का प्रयास होना चाहिए। नव तत्त्व के आलोक में आदमी ध्यान दे कि संवर, निर्जरा व मोक्ष को जानते हैं जो अध्यात्म का पक्ष है तो पुण्य, पाप, बंध और आश्रव को भी जानना चाहिए जो बाह्य का जगत होता है। किसी भी एक पक्ष का ज्ञान होना और दूसरे पक्ष का ज्ञान नहीं होता तो वहां अधूरेपन की बात हो सकती है। 

ज्ञान के साथ विज्ञान की बात को जानने का प्रयास हो। अध्यात्म और विज्ञान का कहीं समनव्य भी हो सकता है। अध्यात्म को गहराई से पकड़ने के लिए बाह्य का ज्ञान भी अपेक्षित होता है। जब तक बाह्य का अच्छा ज्ञान नहीं होता, तो शायद अध्यात्म की अनुपालना में कमी भी हो सकती है। इसलिए आदमी को अध्यात्म और बाह्य को जानकर चलने से परिपूर्णता की बात हो सकती है। 

मंगल प्रवचन के उपरान्त आचार्यश्री ‘चन्दन की चुटकी भली’ में वर्णित एक और आख्यान के क्रम को सम्पन्न करते अपनी नीति को शुद्ध बनाए रखने की प्रेरणा प्रदान की। आचार्यश्री के मंगल प्रवचन व आख्यान के उपरान्त साध्वीवर्या सम्बुद्धयशाजी ने भी जनता को उद्बोधित किया। तेरापंथ कन्या मण्डल-सूरत ने चौबीसी में उल्लखित छठे तीर्थंकर पद्मप्रभु के गीत का संगान किया। तपस्वियों ने अपनी-अपनी धारणा के अनुसार अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान किया। बालक प्रबल कोटड़िया ने गीत का संगान किया।

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